Wednesday, May 25, 2016

Why do we do Parikrama ?

          परिक्रमा (प्रदक्षिणा

प्रदक्षिणा यह संस्कृत का शब्द है, हिंदी में परिक्रमा कहते है. हिन्दू परंपरा के अनुसार पूजा-पाठ मेंयज्ञ -यागादि में अग्नि की  तुलसी , पीपल, आत्म तथा मंदिर की परिक्रमा करने की प्रथा अनादि काल से चलते रही है. अग्नि की परिक्रमा हिन्दू विवाह में एक महत्वपूर्ण रिवाज है जिसके बिना शादी अधूरी रह जाती है, तुलसी की परिक्रमा तो आज हर एक सुहागन को करते देखते है जो सदा सुहागन रहनेके लिए की जाती है.

पीपल या बरगद के वृक्ष की परिक्रमा जो ( वट सावित्री पूर्णिमा ) के नाम से भी जानी आती है, इस दिन बरगद के पेड़ की पूजा करके उसे धागा लपेटते हुए परिक्रमा की जाती है पति के लम्बी आयु, अच्छे स्वास्थ , तथा तरक्की के लिए की जाती है. इस रिवाज के पीछे एक महत्वपूर्ण सत्यवान-सावित्री की कथा प्रचलित है.वैसे तो ईश्वर आराधना के अनेक विधान है उनमेसे मंदिर की परिक्रमा एक प्रसिद्ध साधन माना गया है.
प्रदक्षिणा का शाब्दिक अर्थ :- "प्र" सही से शुरवात। "दक्षिण" दाहिने से शुरुवात। अपने दाहिने से सही की शुरुवात करना. किसी को मध्य बिंदु या मध्य नजर रखते हुए गोलाकार में करने वाली क्रिया को परिक्रमा कहते है.
Pradakshina. parikrama
Parikrama 

. चारो ओर  चक्कर लगाना या घूमना.
. किसी तीर्थ , देवता या मंदिर के चारो ओर भक्ति और श्रद्धा से पुण्य प्राप्ति की अपेक्षा से चक्कर लगाने की क्रिया.
. किसी को केंद्र बिंदु रखते हुए गोल -गोल घूमना.
. उक्त प्रकार का चक्कर लगाने के लिए नियत किया या बना हुआ मार्ग.

परिक्रमा क्युँ

हम एक केंद्र बिंदु के बिना चक्र नहीं बना सकते , जब की हम परिक्रमा  प्रारंभ करते है तब भगवान को ही केंद्र बिंदु का आधार, हमारे जीवन का स्रोत और कर्म का सार है इस भावना से हम परिक्रमा के प्रदर्शन से यह स्वीकार करते है की हमारे जीवन में बिंदु के रूप में उसे स्वीकार करते हुए हम अपने नित्य कर्म के बारे में जाना. इसके अलावा एक वृत्त की परिधि पर हर बिंदु केंद्र एक समान की दूरी पर होता है, इसका मतलब यह है की हम जहां पर भी हो , या जो कोई भी हो हम उतना ही भगवान के करीब है. उनकी कृपा पक्षपात के बिना हमारी ओर बहती है।

क्यों परिक्रमा दाहिने ओर से ही की जाती है?
ऋग्वेद के अनुसार प्रदक्षिणा शब्द को दो भागो में बाटा है " प्र + दक्षिणा. इस शब्द में मौजूद प्र का तात्पर्य है आगे बढ़ना और दक्षिणा का मतलब है दक्षिण दिशा. यानी की ऋग्वेद के अनुसार परिक्रमा का अर्थ है दक्षिण दिशा की ओर बढ़ते हुए देवी-देवाताओं की उपासना करना. इस परिक्रमा के  दौरान भगवान हमारे दाई ओर गर्भमन्दिर में विराजमान होते है. मानना है की परिक्रमा हमेशा घड़ी की सुई की दिशा में ही की जाती है , तभी हम दक्षिण दिशा की ओर आगे बढ़ते है. हिन्दू धर्म की मान्यताओं के प्रकार ईश्वर हमेशा मध्य में उपस्थित होते है, यह स्थान भगवान को केंद्रित रहने का अनुभव प्रदान करता है. यह मध्य का स्थान हमेशा एक ही रहता है यदि हम इसी स्थान से गोलाकार दिशा में चले तो हमारा और भगवान के बीच का अंतर एक ही रहता है.

यह फासला ना ही बढ़ता है ना ही घटता है. इसको मनुष्य को भगवान से दूर होने का भी आभास नहीं होता और उसमे यह भावना बनी रहती है की भगवान हमारे आस-पास ही है. परिक्रमा को घड़ी की सुई की दिशा में करने का एक कारण यह भी है की इस तरह से चलते हुए भगवान हमेशा हमारे दाई ओर रहते है जिससे हमें खुद को जीवन में सही दिशा में रहने की सीख मिलती है, यह परिक्रमा केवल पारम्परिक आधार पर ही नहीं बल्कि इसे करने  के और भी कारण है. स्कन्द पुराण में दी गयी कथा से हमें ज्ञात होता है की परिक्रमा करने का क्या कारण है.

स्कन्द पुराण की कथा

एक बार भगवान शिव और माता पार्वती द्वारा अपने पुत्रों गणेश तथा कार्तिकेय को सांसारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए पृथ्वी का एक चक्कर लगाकर उनके पास वापस लौटने का आदेश दिया गया. जो भी पुत्र इस परिक्रमा को पूर्ण कर माता के पास सबसे पहले पहुंचता वही इस दौड़ का विजेता होता तथा उनकी नजर में सर्वश्रेष्ठ कहलाता. यह सुनकर कार्तिकेय अपनी सुन्दर सवारी मोर पर सवार हुए तथा पृथ्वी का चक्कर लगाने के लिए निकल पड़े. उन्हें यह भ्रमण समाप्त करने में सालो लग गए लेकिन दूसरी ओर गणेश द्वारा माता की आज्ञा को पूरा करने का तरीका काफी अलग था जिसे देख सभी हैरान रह गए.

गणेश ने अपने दोनों हाथ जोडकर माता पार्वती के चक्कर लगाना शुर कर दिया , जब की कार्तिकेय पृथ्वी का चक्कर लगाकर वापस लौटे और गणेश को अपने सामने पाया तो वह हैरान हो गए. उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था की कैसे गणेश उनसे पहले परिक्रमा समाप्त कर सकते है.
बाद में गणेश से जब पूछा गया तो उन्होंने कहा की उनका संसार तो स्वयं उनकी माता है, इसलिए उन्हें ज्ञान प्राप्ति के लिए पृथ्वी की परिक्रमा लगाने की आवश्यकता नहीं है, इस पौराणिक कथा में भगवान गणेश की सूझबूझ ना केवल मनुष्य को परिक्रमा पूर्ण करने का महत्व समझाती है, बल्कि यह भी दर्शाती है की हमारे माता-पिता जो की भगवान के समान है उनकी परिक्रमा करने से ही हमें संसार का ज्ञान प्राप्त होता है !

पूर्ण में इस कथा के उल्लेख के बाद ही हिन्दू धर्म में परिक्रमा करने का रिवाज का आरम्भ हुआ ऐसा कहा जाता है. तब से लेकर आजतक विभिन्न धार्मिक स्थलों पर परिक्रमा करने का रिवाज महत्वपूर्ण माना गया. लेकिन इस परिक्रमा को निपुणता पूर्वक करने के लिए कुछ मूल निर्देश भी स्थापित किए गए , जिसका पालन करना अनिवार्य कहा गया है.

. परिक्रम हमेशा दाहिने ओर से आरम्भ करे.
. गणेश की 1 परिक्रमा
. शिव जी को आधी ( कहा जाता है की शिव जी के रुद्रगण शिवलिंग पर चढ़ाया गया जल को चरणामृत के रूप में स्वीकार करने के लिए निकासी द्वारपर बैठे होते है उन्हें लांघकर हम नहीं जा सकते वह परिक्रमा पूरी नहीं मानी जाती है, इसलिए आधी परिक्रमा की जाती है जब हम उसी स्थान से लौटकर वापस आते है तब वह परिक्रमा पूरी होती है )
. सूर्य भगवान की 2
. देवी माँ की 4
. विष्णु भगवान की 5 या 7
कुछ रिवाजो के अनुसार या शक्ति के अनुसार परिक्रमा की सांख्य में उतार चढाव करते देखा गया है। अधिकतर भक्तो को विषम संख्या में परिक्रमा करते देखा है जैसे की 3,5,7,9, या 21, और किसी को अपनी मन्नत पूरी करने हेतु 108 परिक्रमा करते भी देखा है.


आत्म प्रदक्षिणा 

हम मानते है हमार धर्म कहता है की कण -कण में परमात्मा समाया हुआ है वेद, पुराण, तथा शास्त्रों के अनुसार हमारी आत्मा ही भगवान है इसिलए तो "अहं ब्रम्हास्मि" प्रज्ञानं ब्रम्ह" ऐसा उल्लेख उपनिषत में देखा है हमारे भीतर परमात्मा बसा हुआ है. इसलिए हम हमारे भीतर बेस हुए परमात्मा को परिक्रमा करते है जिसे आत्म प्रदक्षिणा कहा जाता है. देखा गया है की जब हम जल्दबाजी में या कमजोर निशक्त होते है और विशाल मंदिर की परिक्रमा करने में दिक्कत होती है तब हम आत्म प्रदक्षिणा की जाती है या करते है.
परिक्रमा करने से लाभ

                            यानी कानीच पापानि जन्मांतर कृतानीच !
                            तानी-तानी विनश्यन्ति प्रदक्षिणं पदें-पदें !!
अर्थात:- जो कोई भी पाप अथवा गलती हमसे हुयी है या हमने की है, बार-बार मेरे द्वारा किए गए परिक्रमा से वह सारा पाप धुल जाए.
भगवान से विभिन्न तरह के फल के लिए अनेक इच्छाए मन में रख के अपने मन को शांति की अनुभूति के लिए उनसे प्रार्थना करते है, इसी तरह से भगवान की परिक्रमा करते हुए भी इसे अनेक लाभ हुए भक्तो को देखा है. उनका अनुभव हमने सुना है. कहते है की मंदिर या पूजा स्थल पर प्रार्थना करने के बाद उस स्थल के वातावरण में काफी बदलाव आते देखा है. तथा वह स्थल सकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है
विज्ञान कहता है की जो भी व्यक्ति उस स्थान पर मौजूद होता है उसे भी ऊर्जा की प्राप्ति होती है. वही कारण है की गणेश भगवान की तरह ही मंदिर में भक्त भी भगवान की मूर्ती की परिक्रमा करते है, और उनसे सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करते है. यह ऊर्जा हमें जीवन में मानसिक , शारीरिक , तथा आध्यात्मिक दृष्टी से आगे बढ़ने में मदत करती है इस तरह ना केवल आध्यात्मिक रूप से नहीं वैज्ञानिक रूप से भी मनुष्य को लाभ देती है यह परिक्रमा !