Tuesday, August 09, 2016

Architecture of the Temple

   

            मंदिर की रचना

               देवालय की वास्तु तथा नियम

मंदिर के वास्तु को विभागोंमें बाटा है. उत्तर हिमालय से विंध्य पर्वत तक नागर शैली नाम से , विंध्य पर्वत से कृष्णा नदी तक वेसर शैली नाम से और तीसरी द्राविड़ शैली नाम से जानी जाती है. उत्तर की वास्तु शैली को काश्यप वास्तु और दक्षिण वास्तु शैली को भृगु संहिता वास्तु के नाम से जाने जाते है. इनके तहत जो मध्यम वास्तु है जिसे कृष्णा नदी तक है वह वास्तु नागर और द्राविड़ वास्तु का प्रतिनिधित्व रखता है.

  जैसे की आप कर्नाटका के प्रसिद्ध वास्तु शैली में एक बादामी, ऐहोळे , पट्टदकल्लु इत्यादि स्थानों में हर तरह के वास्तु शैली को  देख सकते है जो राजा चालुक्य चक्रवर्ती की बहु अमूल्य देन है. " समरांगण सूत्रधार " नामक ग्रन्थ के अनुसार मंदिर की लम्बाई उसके चौड़े आकर से बड़ी होनी चाहिए. अधिकतर  मंदिर की लम्बाई  6 भागोंमें प्रस्तापित की गयी है.
. अधिष्ठान  . पाद . प्रस्तार . कंठ  . शिखर  . सुप्ति !

मंदिर का आकर:-
.चतुरस्र -  चौकोन  .दीर्घ चतुरस्र प्रासाद - आयुत  .दीर्घवृत्त प्रासाद -  मुर्गी के अंडे के तरह
.शडस्र प्रासाद- षट्कोन  .अष्टस्र प्रासाद-  आठ कोनोवाला  .गज प्रष्टाकार - हाथी के पृष्ठ (पीठ )भाग जैसा!
जो सामने शिखर होके और चारो ओर से ढका हुआ होता है वह दक्षिण वास्तु शैली कहलाती है. मंदिर में पूजा घर (गर्भ -गृह ) दरवाजे भगवान के आसन (पीठ) के साथ मूर्ति से गुना बढ़कर होने चाहिए। भगवान का आसन मूर्ति के लम्बाई से आधा होना चाहिए. तंत्र सार ग्रन्थ के अनुसार गर्भ मंदिर में मूर्ति के बीचोबीच मूर्ति के ऊपर आसन के साथ मूर्ति जितनिहि ऊपरी लम्बाई होनी चाहिए हो जगह खाली हो. जिसे गुम्बज कहते है.  उसी तरह अपने घर में भी जैसे खंबे, खिड़की या पिल्लर सम संख्या में होने चाहिए. परन्तु मंदिर में  इनकी गणना सम और विषम संख्या रख सकते है ऐसा उल्लेख किया गया है . मंदिरों के लिए 2 विधान होते है.

एक मूर्ति पूजा विधान  और   बहमूर्ति पूजा  विधान
अधिकतर हिन्दू मंदिरोंमें एक मूर्ति विधान के तहत प्रतिष्ठित किए गए है. अर्थात गर्भ मंदिर में केवल एक ही मूल मूर्ति होती है जो उस मंदिर का प्रधान भगवान के नाम से पुकारते है !
प्राचीन काल में मूर्ति का आकर तालमाण से करते थे अर्थात अपने शरीर के हाथ के कोहनी से लेकर पंजे के बीच के उंगलितक की लम्बाई इस लम्बाई के अनुसार मूर्ति का मुख होता था. और इसका 9 गुना लम्बा मूर्ति का शरीर होता था. इस प्रकार मूर्ति की लम्बाई मापा करते थे. ऋग्वेद में मूर्ति के विषय पर और अथर्ववेद में मंदिर निर्माण के बारे सविस्तार से जानकरी दी गयी है केवल श्रद्धावान शिल्पकार ही अच्छी तेजस्वी मूर्ति बना सकता है.
Hindu Mandir

उदाहरण के लिए:- गंगा नामक व्यक्ति की देन है कर्नाटका के प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थलों में से एक श्रवण बेलगोल की बाहुबली की मूर्ति. यह जग नश्वर है इस बात से परिचित होकर उस मूर्ति के मुख पे मंदहास्य लानेवाले उस शिल्पी की कला को दाद देनी पड़ेगी. इससे यह ज्ञात होता है की शिल्कार कितना खो गया होगा उस मूर्ति में जब वह मूर्ति बना रहा था. अगर शिल्पी का ध्यान ना हो तो मूर्ति बिगड़ सकती है और शिल्पकार भी.


शास्त्र के अनुसार मूर्ति की बार पूजा करनी चाहिए
. मूर्ति कोरनेके वक्त आरम्भ में   . मूर्ति का मुख ( चेहरा) पहलीबार कोरने के बाद  . मूर्ति के निर्माण के बाद .
मूर्ति प्रतिष्ठापना के पूर्व में दूध, पानी, धान्य ऐसे वस्तु में मूर्ति का अधिवास ( रखकर ) करके अंत में शय्यादीवास बिस्तर पर लिटाके बाद में प्रतिष्ठापना कार्य करना चाहिए. मूर्ति को प्रतिष्ठापित करनेके लिए इन महान पवित्र  8 चिजोंका इस्तेमाल करना पड़ता है. शंख, सफेद पत्थर , सीसा , गुग्गुल , गुड , तिल का तेल , शुद्ध घी और कावी अगर यह चीजे नहीं मिली होतो इनके बदलेमे कुछ और अनेक पवित्र और श्रेष्ठ वस्तु या सुगन्धि द्रव्य का मिश्रण बना सकते है  इनका सही मात्रा में चिपचिपा  मिश्रण बनाके मूर्ति की प्रतिष्ठापना आसन पर या पीठपर की जाती है. इसे ही अष्टबन्ध प्रतिष्ठा कहते है जो आठ पवित्र वस्तुओंसे मूर्ति को विराजित किया जाता है. मूर्ति के नीचे यंत्र, रत्न, पंचधातु, नवरत्न, इत्यादि रखा जाता है जिससे मूर्ति में ऊर्जा, तेज, तथा सकारात्मक शक्ति बढे ताकि जब कोई भी मनुष्य मंदिर प्रवेश करनेसे मन को शांति तथा मन पवित्र हो जाएमूर्ति प्रतिष्ठा के बाद शिखर, धवजस्तम्भ, देवता वाहन की प्रतिष्ठा सब वैभव के साथ की जाती है

मंदिर यह मनुष्य और भगवान के बीच में का सेतु है जैसे गुरु-शिष्य माँ और बेटे का रिश्ता होता है. अधिकतर मंदिर मण्डूकशाई पथ नामक वास्तु मंडल के तहत निर्माण किए जाते है. मयमत ग्रन्थ के अनुसार ३२ तरह के वास्तु मंडल यानि मंदिर विन्यास के बारे में बताया गया है.  प्रतिष्ठा विधि में षडाधार प्रतिष्ठा प्रमुख अंग है अर्थात- गर्भ मंदिर के मध्य भाग में प्रतिष्ठित की गयी मूल मूर्ति, निधिकुम्भ, पद्मशीला, कूर्मपीठ, योगणाल और ब्रम्हशिला प्रारम्भ निधिकुम्भ से लेकर ब्रम्हशिला ( शिखर) तक एक ही समानांतर होता है या सम्बन्ध होता है.
यह इसी रेखा में रहने चाहिए. यह मंदिर के चैतन्य का संकेत होते है. जो देवभक्त हो, दान-धर्म करता हो, जिस के ह्रदय में करुणा-ममता हो और जो सन्मार्ग से धन सम्पादित किया हो वह मनुष्य मंदिर निर्माण योग्य है
ऐसा  "निरुक्ताधार" और पद्म संहिता ग्रन्थ में कहा गया है.

मंदिर निर्माण कार्य में मार्गदर्शन के तहत एक पुरुष होकर जो ब्राम्हण हो, वेद-शास्त्र पढ़ा हो, मंदिर के संस्कृति के बारे में जानता हो, जो हर दिन संध्या-जाप , सत्य व्रताचरण करके गृहस्थ धर्म में हो ऐसा व्यक्ति मार्गदर्शन के लिए योग्य हैमरीची द्वारा रचित "विमानाचार कल्प " नामक  ग्रन्थ में कहा गया है.
स्थापक, स्थपति और पूजक यह शक्तियां मंदिर के अत्यन्त प्रभावी अंश में से एक है. अर्थात जो स्थापना करता हो जो करवाता हो, और जो दिननित्य मंदिर की पूजा करता हो. इन 3का मिलन ही मंदिर के चैतन्य का स्वरुप है. इन शक्तियों के प्रभाव से एक पुण्यप्रद पूजास्थल का निर्माण होकर भविष्य में यह मंदिर पवित्र तीर्थक्षेत्र नाम से जाना जा सकता है. या यह प्रसिद्धि की बुलंदियों को छू सकता है!