Monday, August 29, 2016

Why Do We Perform Havan ?

                  अग्नि की महत्ता तथा हवन (अग्निहोत्र) से लाभ 

मारे हिन्दू परंपरा में हर एक पूजा में हवन करनेकी प्रथा हजारो सालोंसे चलती रही है , कही पे शांति हवन, तो कही पे शुद्धि हवन और तो कही पे लोक कल्याण यज्ञ या हवन किया जाता है. हवन,  होम, यज्ञ, याग इन अलग-अलग नामोसे अग्नि भगवान् को जाना जाता है. विशेषकर नवरात्र, दीपावली, गृहपूजा और नवोग्रहों की पीड़ा दूर करनेके लिए वैसे उत्तर तथा दक्षिण भारत में  हर एक  पूजा के बाद हवन करते है.

कहा जाता है की बिना हवन के पूजा अधूरी है. पांच महाभूतोंमे अग्नि का दूसरा स्थान है. और मनुष्य का शरीर भी पांच भौतिक गुणोंसे ही बना है जैसे की जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश. पुरातन काल में हर एक के घर में विशेषकर हरदिन हवन किया जाता था. आज भी यहाँ प्रथा प्रचलित है. कहा जाता है की यह अपने जीवन का अंग है , प्रदुषण शुद्धि के लिए किया जाता है. वैसे तो हवन कई सारे लाभ है जैसे की सकारात्मक सोच के लिए, कृषि के लिए, वातावरण शुद्धि के लिए, वर्षा ( बारिश ) गिरने के लिए इत्यादि...!

'अग्नि' शब्द का उत्पत्ति अर्थ कुछ इस प्रकार है : जो ऊपर की ओर जाता है' (अगि गतौ अंगेनलोपश्च, अंग्+नि और नकार का लोप)
Yagya Agnijwala

वैज्ञानिक  महत्व :-
यज्ञ के समय जलाई जाने वाली हवन सामग्री रोग उपचार के काम भी आती है.
सामान्य तौर पर जलाई गई अग्नि के अपने परिणाम हैं, उससे वस्तु, व्यक्ति और उपकरणों को गरम कर सकता है, लेकिन यज्ञ अग्निहोत्र में जगाई गई आंच व्यक्ति के कई रोगों से भी मुक्त बनाती है या उसके लिए रक्षा कवच का काम करती है. ओहिजनबर्ग यूनिवर्सिटी (म्यूनिच) के शोध अनुसंधान में लगे अर्नाल्ड रदरशेड ने कहा है कि यज्ञ अग्निहोत्र से इतने रोगों का उपचार किया जा सकता है कि इस विधि को यज्ञोपैथी कहा जा सकता है.

शोधकर्ता ने क्षय, श्वास और फेफड़े की कुछ बीमारियों को अग्निहोत्र से ठीक करने में खासी कामयाबी हासिल की है. आहुतियों में वनौषधियों के प्रयोग के प्रभाव का उल्लेख करते हुए प्रो.रदरशेड ने कहा कि चिकित्सा क्षेत्र में एक नई विधा जुड़ सकती है जिसेयज्ञोपैथीनाम दिया जा सकता है।
चिकित्सा शास्त्री डा.समरसेन का कहना है कि पृथ्वी और उसके गर्भ से जन्म लेनी वाली वनस्पतियों के तत्व को सूक्ष्मरूप में ग्रहण करती हुई वायु या गंध शरीर की संभावित कमी की पूर्ति और विकारों का शमन करती है. उनके अनुसार यज्ञ प्रक्रिया साधक-याजक के चारों ओर का प्रभाव क्षेत्र का मंडल बदल देती है. एक निष्कर्ष यह भी है कि यज्ञोपचार वस्तुतः मानसोपचार के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा प्रक्रिया है.जहां किसी औषधि का प्रभाव नहीं होता वहां औषधियों की वाष्पीभूत ऊर्जा पहुंचकर रोग विकारों का शमन कर सकती है !


वैदिक धर्म के अनुसार:-
ऋग्वेद का पहला मंत्र अग्नि शब्द से ही प्रारम्भ होता है " अग्निमीळे पुरोहितं". वैदिक देवमण्डल में इन्द्र के अनन्तर अग्नि का ही दूसरा स्थान है. जिसकी स्तुति लगभग दो सौ सूक्तों में वर्णित है. अवेस्ता में अग्नि को पाँच प्रकार का माना गया है। परन्तु अग्नि की जितनी उदात्त तथा विशद कल्पना वैदिक धर्म में है, उतनी अन्यत्र कहीं पर भी नहीं है. वैदिक कर्मकाण्ड का श्रौत भाग और गृह्य का मुख्य केन्द्र अग्निपूजन ही है.अग्नि के वर्णन में उसका पार्थिव रूप ज्वाला, प्रकाश आदि वैदिक ऋषियों के सामने सदा विद्यमान रहता है. अग्नि की तुलना अनेक पशुओं से की गई है। प्रज्वलित अग्नि गर्जनशील वृषभ के समान है. उसकी ज्वाला सौर किरणों के तुल्य, उषा की प्रभा तथा विद्युत की चमक के समान है.
उसकी आवाज़ आकाश की गर्जन जैसी गम्भीर है. अग्नि के लिए विशेष गुणों को लक्ष्य कर अनेक अभिधान प्रयुक्त करके किए जाते हैं. अग्नि शब्द का सम्बन्ध लातोनी 'इग्निस्' और लिथुएनियाई 'उग्निस्' के साथ कुछ अनिश्चित सा है, यद्यपि प्रेरणार्थक अज् धातु के साथ भाषा शास्त्रीय दृष्टि से असम्भव नहीं है. प्रज्वलित होने पर धूमशिखा के निकलने के कारण धूमकेतु इस विशिष्टिता का द्योतक एक प्रख्यात अभिधान है. अग्नि का ज्ञान सर्वव्यापी है और वह उत्पन्न होने वाले समस्त प्राणियों को जानता है।

इसलिए वह 'जातवेदा:' के नाम से विख्यात है. अग्नि कभी द्यावापृथिवी का पुत्र और कभी द्यौ: का सूनु (पुत्र) कहा गया है। उसके तीन जन्मों का वर्णन वेदों में मिलता है. जिनके स्थान हैं-स्वर्ग, पृथ्वी तथा जल। स्वर्ग, वायु तथा पृथ्वी अग्नि के तीन सिर, तीन जीभ तथा तीन स्थानों का बहुत निर्देश वेद में उपलब्ध होता है. अग्नि के दो जन्मों का भी उल्लेख मिलता है-भूमि तथा स्वर्ग। अग्नि के आनयन की एक प्रख्यात वैदिक कथा ग्रीक कहानी से साम्य रखती है. अग्नि का जन्म स्वर्ग में ही मुख्यत: हुआ, जहाँ से मातरिश्वा ने मनुष्यों के कल्याणार्थ उसका इस भूतल पर आनयन किया। अग्नि प्रसंगत: अन्य समस्त वैदिक देवों में प्रमुख माना गया है. अग्नि का पूजन भारतीय संस्कृति का प्रमुख चिह्न है और वह गृहदेवता के रूप में उपासना और पूजा का एक प्रधान विषय है. इसलिए अग्नि 'गृहा', 'गृहपति' (घर का स्वामी) तथा 'विश्वपति' (जन का रक्षक) कहलाता है।